नाथना, नांधना और नांद

 नाथनानाँधना और नाँद

डॉ. रामवृक्ष सिंहलखनऊ

मोबा- 7905952129. 8090752129

 

पहली बात तो यह है कि नाथना और नाँधनादोनों पृथक शब्द हैं। ऐसा नहीं कि नाँधना शब्द नाथना के बदले भूलवश लिखा गया है। एक कहावत है न आगे नाथ न पीछे पगहा। अगर इसका यही रूप है तो तथ्यतः त्रुटिपूर्ण है। नाथ भी आगे ही होता है और पगहा भी आगे ही। बस नाथ का संबंध नथुनेनासिका या नाक से हैजबकि पगहा का संबंध पशु के गले में बंधी उस लंबी रस्सी सेजिसका दूसरा सिरे खुंटे या किसी स्थिर आलंब से बंधा रहता है। नाथ से पशु पूरी तरह नियंत्रण में आ जाता हैजबकि पगहे के ज़रिए वह एक ठीहे पर बँधा रहता है।

नाथ और नथ- एक ही मूल शब्द के दो रूप हैं। महिलाओं का पारंपरिक गहना है नथनथुनी या नथिया। यह गोलाकार आभूषण नाक की बाहरी माँसल त्वचा को छेदकर पहना जाता है। कुछ विद्वान इसका भी एक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य बताते हैं। कई सदी पहले एक राज्य विशेष के आक्रान्ता जब किसी अन्य राज्य पर आक्रमण करके उसे जीत लेते थे तो अन्य धन-सम्पदा के साथ-साथ वहाँ की स्त्रियों को भी लूटी हुई सम्पत्ति की भांति अपने साथ ले जाते थे। मारे जा चुके पुरुषों की इन विधवाओंकुमारियों आदि की संख्या इतनी अधिक होती थी कि उन्हें किसी सामान्य रीति से नियंत्रित करके हाँकते हुए ले जाने दुष्कर था। इसलिए विजेता सैनिक इन महिलाओं की नाक में छेद करके उसमें एक छल्ला पहना देते। प्रत्येक महिला की नाक में पड़े उस छल्ले से होते हुए एक लंबी रस्सी गुजारी जाती और सभी को इस रस्सी के साथ पंक्तिबद्ध रूप में गुलाम बनाकर अपने साथ ले जाया जाता। यह सब विजित राज्यों की महिलाओं के लिए कितना त्रासदअपमानजनक और शारीरिक पीड़ा देनेवाला रहता रहा होगायह सोचकर भी आत्मा चीत्कार कर उठती है। सामंती युग में महिलाओं की क्या स्थिति थीइसका यह ज्वलंत उदाहरण है।

कालान्तर में गुलामी का प्रतीक रही यह नथ ही महिलाओं का एक प्रिय और अत्यन्त महत्त्वपूर्ण आभूषण बन गयी। कैसे बनी- इस पर हमारे समाज विज्ञानियों को अनुसंधान करना चाहिए। साहित्य और सौन्दर्यशास्त्र में यही नथ रूमानियत का प्रतीक बनी। पाठकों को वह फिल्मी गीत तो याद ही होगा जिसमें नथुनिया पे गोली मारने की बात कही गयी है।

महिलाओं की नाक में नथ डालकर उन्हें नियंत्रित करने का विचार कैसे आया होगा? यह एक बड़ा सवाल है। संभव है कि बहुत पहले सेयानी जबसे मनुष्य पशुपालक बना हो, तभी से उसने यह जान लिया हो कि सामान्यतः पाले जानेवाले जीवित प्राणी की नाक के एक छिद्र से खोंसकर दूसरे छिद्र में से रस्सी निकाल ली जाए तो उसे लगभग पूरी तरह नियंत्रित किया जा सकता है। मवेशियोंभैंसोंऊँटों आदि को आज भी इसी प्रकार नियंत्रण में रखा जाता है। नाक में डाली जानेवाली इसी रस्सी को नकेल कहते हैं। नाथ और नकेल इस दृष्टि से समानार्थी हैं।

नकेल डालने के बाद पशु को वश में तो कर लिया। अब उसका उपयोग खेती में हल जोतनेहेंगा या पाटा चलानेबोझा ढोनेउसकी पीठ पर बैठकर सवारी करनेशकटबैलगाड़ी आदि खींचनेरहटमोट आदि चलाने और दुग्धोत्पादन के लिए किया जाना था। इनमें से कुछ क्रियाओं के लिए पशु के डील यानी उसकी पीठ पर उठे माँसल हिस्से का उपयोग किया गया। इस डील और गरदन के बीच के भाग पर रस्सी का फंदा बाँधकर उससे लकड़ीबाँस आदि से बना एक उपकरण जोड़कर रखकर मनुष्य ने ऐसा जुगाड़ बनायाकि पशु जब आगे की ओर चले तो उस जुगाड़ से बंधा यंत्र जैसे हलपाटाबैलगाड़ीइक्का, ताँगाशकटकोल्हूरहटमोट आदि भी उसके साथ आगे की ओर या इच्छित रूप में चलता जाए। आगे-आगे पशु और उसके पीछे-पीछे मनुष्य-निर्मित यंत्र को परस्पर जोड़ने और उसका इच्छित उपयोग करने की यह प्रक्रिया ही नाँधना कहलाती है।

नाथे बिना नाँधना संभव नहीं। नाथकर पशु पर नियंत्रण किया जाता है और नाँधकर उसके बल का इच्छित उपयोग।

जिस बड़े पात्र में पशु को सानी-पानीदाना-भूसा दिया जाता है, यानी जिस पात्र में उसे खिलाया-पिलाया जाता हैउसे नाँद कहते हैं। नाँद का पात्र पहले कुम्हार के यहाँ से आता थाजिसे हौदी या हौदा कहते थे। इसे किसी दीवार से सटाकर मिट्टी या सीमेंट का मसाला लगाकर स्थिर कर दिया जाता। वहीं जानवर का खूँटा गड़ा रहता। किसान के पास एक से अधिक जानवर होते थे तो बाहर से चरकर या खेत से काम के बाद वापस आने पर  वेस्वतः अपनी-अपनी नाँद पर पहुँच जाते। दूसरे जानवर की नाँद में मुँह नहीं डालते थे। ईसाइयों की लोकश्रुति है कि ईसा मसीह का जन्म जेरुसेलम के किसी अस्तबल में ऐसी ही नाँद में हुआ था।

नाट्यशास्त्र में नाटकों के पहले नांदी पाठ की बात होती है, किन्तु वह पृथक विषय है। उसपर फिर कभी।

---0---

Comments

Popular posts from this blog

गूंधना और गूंथना

हट्टी और सट्टी तथा चन्दुआ और चनुआ

वमन, वमिटिंग और बोमी