दौड़, परिगेत्तुलु, रन, किल्ली, गिल्ली, गेंद और बल्ला
डॉ. रामवृक्ष सिंह, लखनऊ
यह सभी शब्द एक ही
खेल से संबंधित हैं, जिसे हम ‘क्रिकेट’ के नाम से जानते हैं। कभी हॉकी हमारे देश का राष्ट्रीय खेल
हुआ करता था। किताबों और अभिलेखों में शायद अब भी हो। किन्तु हमारे बचपन में यानी
साठ-सत्तर के दशक में हॉकी का जैसा चाव बच्चों और युवाओं में दिखता था, वैसा तो क्या,
उसका दो प्रतिशत भी अब कहीं नहीं दिखता। गाँवों में उससे भी कहीं अधिक चाव कबड्डी
का हुआ करता था। स्कूल जाते-आते बच्चे कहीं भी बस्ता पटक कर कबड्डी खेल लिया करते
थे। उसके लिए किसी साजो-सामान की ज़रूरत न थी। बस डेढ़ बिस्वे का सपाट मैदान ही काफी
हुआ करता था। और आबालवृद्ध किसी भी भारतीय को भारत माँ की मिट्टी में लोटपोट होने
से कोई गुरेज़ न था।
आज स्थिति बिलकुल
बदल चुकी है। अब जो रुतबा क्रिकेट को हासिल है, वैसा किसी भी अन्य खेल को नहीं।
गली-कूचे, खेत-खलिहान, आबादी-वीराना, हर जगह क्रिकेट की दीवानगी है। हमारे
बाल्यकाल से लेकर अब तक यह दीवानगी क्रमशः बढ़ती चली गयी है। इस खेल के भाषिक
चरित्र में भी बुनियादी बदलाव आ गया है। इस संदर्भ में आज से लगभग ढाई सदी पहले
आया ‘लगान’ नामक एक हिन्दी चलचित्र याद आता है। उसमें क्रिकेट से जुड़े कुछ शब्दों के
ठेठ हिन्दी पर्याय प्रयुक्त हुए हैं, जैसे गेंद, दौड़, बल्ला, गेंद आदि। ये शब्द
भारतीय जनता के भाषायी विन्यास के बहुत समीप हैं।
उदाहरण के लिए दौड़
शब्द को ही लें जो अंग्रेजी रन का हिन्दी पर्याय है। हिन्दी तो नहीं, किन्तु
तेलुगु में दौड़ का पर्यायवाची ‘परिगेत्तुलु’ बहुवाची रन्स के लिए अकसर प्रयोग किया जाता रहा है। अपने
पाँच वर्ष के आन्ध्रा प्रवास में हमने तेलुगु के पत्रों और टेलीविजन पर यह शब्द
प्रयोग होते देखा है। इसी प्रकार गेंद, बल्ला, किल्ली, गिल्ली, चौक्का, छक्का,
क्षेत्ररक्षक, क्षेत्ररक्षण, निर्णायक, अतिरिक्त खिलाड़ी, चाय का समय, भोजन का
समय, सीमा रेखा, गेंद उड़ा देना, किल्ली उखाड़ देना आदि अनेक शब्द और पदबंध
क्रिकेट जगत में लम्बे अरसे तक बेधड़क इस्तेमाल हुए हैं।
अब ये शब्द भाषायी
संग्रहालय की विषयवस्तु बन चुके हैं। और मुझे पूरा यक़ीन है कि यह केवल हिन्दी का
सूरते-हाल नहीं है। भारत की हर भाषा में यही तमाशा चल रहा है। और हमारे भाषा-जीवी
इससे पूरी तरह ग़ाफ़िल हैं। जो लोग विश्वविद्यालयों में शोध करते-करवाते हैं,
उन्हें क्या कभी यह सूझा कि खेल-शब्दावली पर कोई काम करवाएँ? अमां, कबीर-सूर-तुलसी,
अज्ञेय, मुक्तिबोध, शमशेर पर तो बहुत काम हो चुका होगा। कब तक बाल की खाल निकालोगे! कभी इधर भी तो ध्यान
दीजिए, गुरुजी!
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