मलाई या मलय?

डॉ. रामवृक्ष सिंह, लखनऊ

हिन्दी और इतर भारतीय भाषाओं के शब्दों को लिपिबद्ध करने की जैसी क्षमता भारतीय लिपियों में है, रोमन लिपि में वैसी सुविधा और क्षमता नहीं है। इसका ज्वलन्त उदाहरण है उपर्युक्त शब्द- मलाई। यह शब्द सेन्गोल (ब्रह्मदण्ड या राजदण्ड) के साथ आज निरन्तर चर्चा में है। तमिलनाडु से आये सेन्गोल (या सेंगोल) को भारत के नई दिल्ली-स्थित, नव-निर्मित संसद-भवन में स्थापित किया जाएगा। उससे पहले आज नई दिल्ली के आर.के. पुरम (रामकृष्ण पुरम) के सेक्टर-सात स्थित मलय मन्दिर में उसकी विधिवत पूजा-अर्चना की गई, या यों कहें कि संसद-भवन में, सभापति की आसंदी के बगल में स्थापित किए जाने का पूर्वाभ्यास किया गया।

नई दिल्ली के दक्षिणी हिस्से में रहनेवाले नागरिक जानते हैं कि रामकृष्ण पुरम के सेक्टर -7 और सेक्टर -6 के मध्य एक नाला बहता है (या उन दिनों बहा करता था, जब हम वहाँ जाते-आते थे)। उस नाले के किनारे वसन्त विहार की ओर से हौज़ खास की ओर जानेवाली सड़क से लगभग सटकर एक ऊँचा भू-भाग है, जिसपर तमिल समाज का हिन्दू मन्दिर निर्मित है। उक्त नाले के साथ-साथ, सेक्टर-6 से सटे हिस्से में अनेक अन्य मन्दिर भी बने हैं, जैसे योगदिव्य मन्दिर, आर्य समाज मन्दिर, दुर्गा मन्दिर आदि। बहुत सम्भव है कि अब वहाँ कोई मस्जिद या कई मस्जिदें व गिरजाघर भी बन गये हों। वस्तुस्थिति की जानकारी तो वहाँ के वर्तमान निवासी ही दे सकते हैं।

बहरहाल, चूँकि वह मन्दिर कुछ ऊँचे यानी पहाड़ीनुमा स्थान पर निर्मित है, इसलिए स्वभावतः उसका नामकरण मलय मन्दिर (MALAI MANDIR) कर दिया गया होगा। चूँकि तमिल-भाषी समाज को देवनागरी की अपेक्षा रोमन और हिन्दी की अपेक्षा अंग्रेजी से सहजात प्रेम है, इसलिए रोमन में लिखा MALAI मन्दिर अपने निर्माण के शुरुआती दिनों से ही मलाई मन्दिर कहा जाने लगा।  

यह एक निर्मम सच है कि हमारा समाज विद्यानुरागी नहीं है। वह चैतन्य भी नहीं है। बेमतलब के सवाल उठाकर बवाल मचाना चाहे उसकी प्रकृति में हो, किन्तु किसी नाम का उच्चारण क्यों उस रूप में होता है, उसका वास्तविक अर्थ और स्वरूप क्या है, उसकी मूल धातु, उपसर्ग और प्रत्यय क्या हैं, उसकी अर्थच्छटाएँ क्या-क्या हैं, यह सब सोचने-विचारने का धैर्य और प्रवृत्ति हमारे समाज के अधिकतर लोगों में नहीं है। छीछालेदर मचाने और बाल की खाल निकालने की योग्यता व प्रतिभा तो इफरात है, इसमें संदेह नहीं। इसलिए दिल्ली के लोगों को MALAI का जो स्वाभाविक उच्चारण सूझा वह था, वह था मलाई। यह यानी मलाई दिल्ली ही नहीं, लगभग सभी हिन्दी भाषियों के लिए चिर-परिचित अवधारणा है। दूध उबालकर ठण्डा करने के बाद उसके ऊपर जमी चिकनाई की पपड़ी को मलाई कहा जाता है। शिक्षित-अशिक्षित सभी हिन्दी-भाषी इससे अवगत हैं। लिहाज़ा MALAI का मलाई बनने में देर नहीं लगी और अच्छे-खासे मलय का यह अपभ्रंश रूप प्रचलन में आ गया।

इससे सिद्ध होता है कि न अंग्रेजी हमारी सांस्कृति विरासत और उसके शब्दों की गुरुता को वहन करने में सक्षम है, न उसकी लिपि रोमन में उन शब्दों के लिप्यंतरण की पूरी क्षमता है। दुःख की बात यह है कि हिन्दीतर भाषाएँ बोलने वाला भारतीय समाज इस बात से लगभग अनभिज्ञ और पूरी तरह निस्पृह है। उसे इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि मलय कहा जाए या मलाई

इस कथन में हास्य का पुट जोड़ते हुए हम कहना चाहते हैं कि हमारे देश के लोग मलाई तलाशते हैं। जहाँ उन्हें आज मलाई दिख रही है, उधर वे लोटा-बाल्टी, थाली-कटोरी लिए दौड़ रहे हैं। उन्हें नहीं पता कि तात्कालिक रूप से मिल रही यह मलाई कालान्तर में उन्हें ऐसे गह्वर में गिराकर मारनेवाली है, जहाँ से बाहर निकलने का कोई मार्ग नहीं है। निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति कौ मूल- भारतेन्दु का यह कथन हम विभिन्न भाषा-रूपों में जपते ज़रूर हैं, किन्तु उसके मर्म को समझते भी हैं, ऐसा कम से कम मुझे तो नहीं लगता। अगर हम समझते तो मलय का मलाई क्यों बन जाता? भारतवासियों का मलाई-प्रेम प्रणम्य है और धन्य हैं हम भारतीय, जिन्हें अपनी भाषा, संस्कृति व स्वाभिमान से कुछ भी वास्ता नहीं।

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