खोर, खोरी, खोरा, खुराक और खोराकी
खोर, खोरी, खोरा, खुराक और खोराकी
- डॉ. रामवृक्ष सिंह, लखनऊ
फ़ारसी में एक शब्द है ख़ूर /ख़ोर, यानी खाने वाला। इसी से बना होगा ख़ुराक या ख़ोराकी। खोराकी या खुराकी, यानी वह राशि जो किसी को खाने के उद्देश्य से दी जाए। कालान्तर में खोराकी शब्द मज़दूरी के लिए रूढ़ हो गया और लोग कहने लगे कि अमुक-अमुक इतनी रुपये खोराकी उठाता है। यानी उसकी मासिक मज़दूरी इतने रुपये है। ख़ुराक से आशय है किसी व्यक्ति की भोजन-क्षमता। कोई कितना खा सकता है- इसे कहते हैं खुराक।
खोर का एक अर्थ होता है खानेवाला। जैसे आदमखोर यानी आदमियों को खा जानेवाला। अहसानफ़रामोश या उपकार को न माननेवाले यानी कृतघ्न व्यक्ति के लिए बोले जानेवाले एक अपशब्द में भी खोर शब्द का प्रयोग होता है। किन्तु वह अपना वर्ण्यविषय नहीं है।
हैदराबाद (तैलंगाना, भारत) में एक प्रसिद्ध संग्रहालय है- सालारजंग संग्रहालय। हम इस संग्रहालय को देखने अनेक बार जा चुके हैं। दुनिया में किसी व्यक्ति के निजी संग्रहालय में इतनी वस्तुएँ नहीं हैं, जितनी सालारजंग के संग्रहालय में हैं। सालारजंग इस शहर के निज़ाम हुआ करते थे और उन्हें भांति-भांति की सुन्दर व अजूबा वस्तुएं एकत्र करने का शौक था। सालारजंग में अनेक प्रकार की मूर्तियाँ, घड़ियाँ, फर्नीचर, वस्त्र, हथियार, बर्तन आदि अजीबो-ग़रीब वस्तुएँ संग्रहीत हैं। हम जितनी बार यह संग्रहालय देखने गये हैं, उतनी ही बार नयी-नयी वस्तुओं पर हमारी दृष्टि पड़ी है और हर बार इस संग्रहालय ने हमें चौंकाया है। ज्यों-ज्यों निहारिए नेरे ह्वै नैननि, त्यों-त्यों खरी निकरै सी निकाई। बिहारी की यह उक्ति सालारजंग संग्रहालय के बारे में सोलहों आने सच है।
इस बार जब हम वहाँ पहुँचे तो हमारी खोजी दृष्टि ने उन शब्दों का अवगाहन किया, जो भाँति-भाँति के मृद्भाण्डों और चीनी मिट्टी के बर्तनों तथा अन्य प्रदर्शित वस्तुओं के नीचे अंकित थे। संग्रहालय में तरह-तरह के कटोरे, डोंगे आदि भी प्रदर्शित हैं। हमें यह देखकर आश्चर्य हुआ कि उनमें से कइयों को रोमन में Khori यानी ‘खोरी’ लिखा गया था। ज़ाहिरा तौर पर यह उक्त बर्तनों के फ़ारसी नाम का रोमन लिप्यंतरण था। हमारी स्मृति में बचपन का वह भोजपुरी परिवेश कौंध गया, जहाँ आज भी कटोरे को ‘खोरा’ और कटोरी को ‘खोरी’ कहा जाता है। हम चमत्कृत हो उठे।
तो क्या हमारे गाँव-जवार की बोलचाल की भाषा में खोरा, खोरी आदि शब्द फ़ारसी से आए हैं? हो सकता है। जैसे खोराकी शब्द हमारे गाँवों में प्रचलित है, जैसे ख़ुराक शब्द प्रचलित है, वैसे ही क्या यह संभव नहीं कि गोलाकार, गहरे आकार के जिस बर्तन में खाया जाए उसे आकार में बड़ा होने पर ‘खोरा’ कहा जाने लगा और छोटा होने पर ‘खोरी’। वैसे बताते चलें कि पूर्वांचल में भोजन ग्रहण करने के लिए बहुत-से कटोरों-कटोरियों के बजाय थाली में ही एक ओर भात का ढेर लगा दिया जाता है, उसके बगल में गाढ़ी दाल परोस दी जाती है और भात पर ही एक या दो प्रकार की सूखी तरकारी रख दी जाती है। दही, खीर या दूध अलग से किसी पात्र में परोस दिया जाता है, जो खोरा या खोरी भी हो सकता है। छोटे बच्चों को इसी खोरा या खोरी में दाल-भात सान कर खाने के लिए दे दिया जाता है।
बहरहाल, हमारी इस खोज से यह सिद्ध हुआ कि शब्द कैसे भूगोल और काल-विशेष की दूरियों को लाँघते हुए, लोक-व्यवहार में अपना अस्तित्व बनाए रखते हैं। ज़रूरत है तो खोजी दृष्टि की और उस सांस्कृतिक बोध की, जिसके लिए हमारी वर्तमान शिक्षा-व्यवस्था और बौद्धिक विकास से जुड़ी संस्थाएँ अब हमें तैयार नहीं करतीं। पता नहीं कि हमारे भाषाविद और अनुसंधाता भी कभी इस ओर ध्यान देते हैं या नहीं।
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